Sunday 16 September 2012

...हिमपात नही देखा

नर्म धूप नही देखी, सिहरती छाँव नही देखी
उगता सूरज नही देखा, ढलती शाम नही देखी
भीगी पत्तियों से बूंदों का टपकना,
तुषार में नहाये तृणों का चमकना
धुंध नही देखी अबके वात नही देखा,
हिम नही देखी अबके हिमपात नही देखा...

सर्द थपेड़े खा, अपने में सिमटना,
कमरे में आ, कम्बल में लिपटना
चिमनी नहीं देखी , उठता धुआं नहीं देखा
आंच से नम होता तन का रुआं नहीं देखा,

क्रीडा दल का हिम पर फिसलना
इधर से जाना, उधर से निकलना
पर्वतों पर जम गया प्रपात नही देखा 
हिम नही देखी अबके हिमपात नही देखा...

ऊपरे खड़े हो नीचे का नजारा
वो झांकना नीचे लेकर सहारा
अपना सा हर मंज़र अनजान नही देखा
कुछ दूरी से गुजरता यान नहीं देखा,

झाडी के फूलों की मदमाती सी चहक
निशाचरों की गूंजती, चुभती सी चहक
मृगशावक का कम्पित कोमल गात नही देखा
हिम नही देखी अबके हिमपात नही देखा...

घाटी में कहीं दूर- झील में तरती तरणी
मनोरम सुबहें, सर्द नीरव शाम सुहानी
बाघ नहीं देखे अबके मृग नहीं देखे
खुलते मुंदते उनके कोमल दृग नहीं देखे
सिमटे जोड़ों को थामे एक दूजे का हाथ नहीं देखा
हिम नही देखी अबके हिमपात नही देखा...


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