Friday 13 July 2012

नन्हीं - सी गुड़िया

पिता काश मैं रहती सदा नन्हीं - सी गुड़िया 
खेलती तेरे आम की छैंया तले 
उछलती कूदती नन्हें क़दमों से 
चहकता आँगन मेरे तोतले बोलों से 

काश बड़ी न होती  
रहती माँ के आँचल तले 
छोडकर आते तुम स्कूल 
चलती तेरी अंगुली थामे 
नन्हे नन्हे हाथों से 

करती माँ को याद
माँ के हाथों बनी खीर पूरी
खाकर आधी छुट्टी में

छुट्टी होने पर
करती इंतजार माँ के लेने आने का
घर आने पर माँ खिलाती अपने कोमल हाथों से
फिर मन बहलाती मैं स्कूल की ढेरों बातों  से 

और पिता जब शाम ढले तुम घर आते
देख तुम्हें कुछ दूरी से
विह्वल हो दौड़ी आती
तुम्हारी अंगुली  पकड़ तुम्हें घर लाने  को 

लाकर पानी का गिलास
देती तुम्हारे हाथों में
तुम फेरते सिर पर हाथ
हो विभोर मेरी प्यारी बातों  से

खाने की फिर आती बारी
माँ बनाती रसोई 
मैं लाकर देती
एक एक रोटी बारी बारी

फिर सोने से पहले देखते तुम होमवर्क
दिखाकर तुम्हें कापियां मैं झटपट सो जाती
और कभी होमवर्क न करने पर
डरकर माँ के आँचल में छुप जाती

पिता अब ये बातें जब याद आती
बचपन की यादें बड़ा सताती 

काश मैं रहती सदा नन्हीं सी गुडिया 
खेलती तेरे आम की छैंया तले
न तुमको विदाई की चिंता 
न मुझको ग़म जुदाई का 
वो दिन थे कितने भले...........

2 comments:

  1. very great lines... n a true of life...

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  2. बहुत खूबसूरत कविता है ... भावपूर्ण .... सूक्ष्म अवलोकन पर आधारित ... बधाई ...

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