Wednesday 11 July 2012

खाई

टीवी स्क्रीन पर
उभरती तस्वीरों में,
असीम सौन्दर्य के
दर्शन करता चित्रकार

अपनी कल्पनाओं में
करता उन्हें साकार
पुलकित होता
उन्हें निहार
एग्जिबिशन लगा
पाता वाहवाही बार-बार

नदारद हैं वो चित्र
उसकी आँखों से
जो बिखरे हैं आस पास
फटे मैले कपड़े पहने
भीख मांगते गरीब

उसे घृणा है उनके झोंपड़ों और
आसपास फैले कूड़े के ढेर से
जिनसे उठती सड़ांध
करती है जीना दूभर

सूखे वाटर टैप
बूँद बूँद को तरसती
तमाम बेहाल जनता
उनके बिसलेरी वाटर में
नहीं समाते जिनके स्वप्न...
  
 

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