Monday 9 July 2012

सफ़र


रात का सन्नाटा देख
मन उद्विग्न हो उठता है
आभास होता है -
यहीं तक था सफ़र उजाले का ?
निराश मन भटकने लगता है

फिर - किरणें आती हैं,
सवेरा आता है, उजियारा फैलाता है,

इस प्रभात बेला में -
मन प्रफुल्लित हो उठता है
अँधेरे से निकल -
फूल - सा खिल उठता है.

इस बेला में जितना प्रकाश / उज्ज्वलता
संजो सकें, कम है     
फिर सांझ के लिए
होने को तत्पर

ताकि / फिर
निराश न हों
हताश न हों
संचित रोशनी का एहसास कर उद्वेलित हों,

फिर आएगा दिन
यही सृष्टि / जीवन / सृष्टि का नियम है
अनिवार
अनवरत
अनंत...


1 comment: