Friday 31 August 2012

सिलसिला

बनते हैं कुछ हाशिये
कभी मिट जाते हैं
यही सिलसिला
निरंतर चल रहा है

ओस पड़ती है कभी
कभी लावा पिघल रहा है
यही सिलसिला
निरंतर चल रहा है

थमा सा है वक़्त कभी
कभी तेज़ चल रहा है
यही सिलसिला
निरंतर चल रहा है

लगता है जैसे कोई
छलावा सा छल रहा है
यही सिलसिला
निरंतर चल रहा है... 

चलते चलते

चलते चलते शायद
बहुत दूर निकल आये हम,
जहाँ साया भी अपना
दिखलाई न दे
अपनी ही आवाज़
सुनाई न दे
चलते चलते शायद
बहुत दूर निकल आये हम,
हलकी सी भी आहट नहीं
पत्तों की  भी सरसराहट नही
चलते चलते शायद
बहुत दूर निकल आये हम...

Wednesday 29 August 2012

...डर लगता है

एक बार छला था
इस डगर ने यूँ
इन राहों से गुज़रते
अब डर लगता है

उस तूफाँ का नज़ारा है
आंखों मे अभी तक यूँ
कि दरिया में उतरते
अब डर लगता है

दस्तक भी होती है
गर दरवाजे पे कभी
बाहर देखते भी
अब डर लगता है

आये जो हलकी सी
क़दमों की आहट भी
क्यों सुनते भी
अब डर लगता है

धीरे - धीरे

धीरे - धीरे ही सही
इस धागे को सुलझा लें आज
ताकि गाँठ न रह जाये कोई
कुछ और नहीं -
एक कोशिश है ये
जाल से निकल
ताना - बाना बुनने की
बस एक बार और सुलझ जाए
सहेज  कर रख लें
ताकि फिर उलझन न आये कोई

Tuesday 28 August 2012

.....यूँ ही

कभी - कभी
भूल जाती हैं
कुछ चीज़ें
और -
खो जाने के भ्रम में
भुला दी जाती हैं

पर अचानक-
वही ज़रूरी चीज़ें
यूँ ही मिल जाती हैं
दबी हुई,
किसी अलमारी में बिछे
बरसों पुराने अखबार के नीचे

या फिर किसी
पेपर वेट के नीचे
या किसी टेबल के
शेल्फ के
किसी कोने में
पड़ी हुई यूं ही.....

मंजिल

तुम चल पड़ोगे जब
मंजिल की ओर
राह की धूप-
तुम्हारा नाज़ुक तन झुलसा देगी
तब थककर तुम
बैठ जाओगे
राह में किसी वृक्ष के नीचे
विश्राम को-

फिर तुम्हारा चेतन मन -
तुम्हें झकझोर देगा
क्या थककर बैठ जाने से
बात बनेगी, मंजिल मिलेगी?

तुम फिर उठ खड़े हो जाओगे
फिर चल पड़ोगे
मंजिल की ओर
सर्द हवा में ठिठुरते-
हथेलियाँ मलते और सिकुड़ते

फिर देखकर कहीं
बैठ जाओगे,
हाथ तापने को
जलाई आंच

फिर तुम्हारा अंतर्मन
तुमसे पूछेगा -
कब तक बैठे रहोगे
हाथ तापते

तुम फिर खड़े हो जाओगे
और चल दोगे आगे
चलते  चलते पाओगे
सूखे  पत्ते तिनकों से
हवा में उड़ते
पांवों में आ पड़ते

तुम्हारा मन
बेचैन हो उठेगा
और तुम
उलझन में पड़ जाओगे
फिर अवचेतन मन
तुम्हें जगायेगा
आगे राह दिखायेगा

तुम फिर बढ़ चलोगे
चेतन हो
फिर बारिश की
बूँदें तुम पर बरसेंगी
तुम उन फुहारों में
तर हो जाओगे

मिट्टी से खुशबू उठती पाओगे
जिसके लिए अब तक
भटक रहे थे रुक रुककर
उतावले थे थम थमकर 

Monday 27 August 2012

रोशनदान से

सभी खिड़कियाँ और दरवाजे
बंद कर -
हम रोक तो लेते हैं -
तेज़ हवा के झोंकों  को
लेकिन - नहीं रोक पाते,
उन तरंगों को-
जो चली आती हैं
किसी खिड़की के
चटखे हुए कोने से,
दरवाजे में छूटी झिरियों से
या  फिर -
रौशनी को छोड़े गए
किसी खुले रोशनदान से ...   

क्यों याद आते हैं...

क्यों याद आते हैं
वो - जो बिछुड़ गए

जो साथ थे कभी
अब जाने किधर गए

चमक उठती हैं आँखें
उन खुशियों को याद कर
जो बरसों पहले पाई थीं

भर आती हैं  आँखें
सोच उस उदासी को
जो जीवन में छाई थी

क्यों लौट लौट आते हैं
लम्हे जो गुज़र गए

महका है तन मन
उन फूलों की खुशबू से
जो दिल में खिले थे

डर जाता है दिल
सोचकर ही-
परबत से जो हिले थे

क्यों मन को बहकाते  हैं
बादल जो बरस गए     

Sunday 26 August 2012

कल आज और कल

कल भी तो यही हुआ था
आज कौन सी अलग बात है
आज भी यही हुआ
कल कौन सी नई बात होगी

जब यही था,
यही है
और यही होना है
तो क्यूँ बार बार फिर -
वक़्त - अपना और उनका
बर्बाद करें -
माँग माँग इजाज़त...

Saturday 25 August 2012

राहें

राहें जो बनाई हैं मैंने
उनमे दीवार खड़ी हो कोई
सितम ऐसा तो नहीं ढाया  मैंने

चाँद छूने की, की है  ख्वाहिश
पूरा आसमाँ मिल जाये
ऐसा तो नहीं चाहा मैंने...

बरसों जो संजोये रखा
बस वही खुदा से माँगा है
सारा जहाँ तो नहीं माँगा मैंने

एक फूल की, की है तमन्ना
सारी कलियाँ दामन में भर लूँ
ऐसा तो नहीं चाहा मैंने...

Friday 24 August 2012

सच

सच है  - कि सच
सच ही रहता है
सच के समीकरण
भले ही बदल जाएँ

ये भी सच है
की झूठ -
झूठ ही होता है
उसके आवरण
कितने भी बदल जाएँ

इस सच और झूठ के बीच
हमेशा चलता रहता है द्वंद्व,
निरंतर-

कभी सच विजयी होता है
तो कभी झूठ- सच को
चिढ़ाता-सा प्रतीत होता है

लेकिन फिर भी सच,
सच ही रहता है
और झूठ झूठ ही होता है.

बहुत दिनों बाद

बहुत दिनों बाद है जो कि
खुली हवा में सांस आया है

बहुत दिनों बाद है जो कि
ताज़ा एक झोंका आया है

सुबह- सर्दियों सी सरसराती है

शाम गोद में सिर रख सहलाती है

बहुत दिनों के बाद है जो कि
निश्छल सा सान्निध्य पाया है

सपनो की जैसे होती है दस्तक

खुला खुला है धरती से नभ तक

बहुत दिनों बाद है जो कि
तन मन में स्पंदन आया है....