Sunday 23 December 2012

नन्हा - सा अंकुर

नन्हा - सा अंकुर
ले रहा अंगडाई अंतर में
कब कैसे बदल गया
सारा जहां पल भर में,

मन के पावन जल से हो सिंचित
पलकों पर सजी खुशियों से
निखार पायेगा,

आँखों में भरी रौशनी से हो दीप्त
मन में उतर आएगा,

खोलेगा आँखें -
बनकर नन्हा सा फूल,
खुशबू से अपनी -
सारा जहाँ महकाएगा... 

Monday 10 December 2012

नजदीकियां

याद है पहली बार वो तेरे छूने का एहसास
करीब होकर भी दूर, दूर होकर भी थे पास,

चलते चलते हाथ थाम लिया था
शरमाकर मैंने छुड़ा दिया था,

दूरियां नजदीकियां सहते सहते
न बनता था हाले-दिल भी कहते, 

ज़माने से छुप जब-जब  नज़रें मिलती थीं
साँसों में तरंग, दिल में कलियाँ खिलती थीं,

प्यार- प्यार तो ज़िक्र भर में हो गया तुमसे
प्यार है - तुमने भी कभी नही कहा मुझसे,

आज जुड़ गए एक दूजे से इस कदर
हसीन हो गया है ज़िन्दगी का सफ़र ...

Tuesday 20 November 2012

करवट

मौसम करवट बदलने लगा है,
धड़कन गीत नया गाने लगी है।

यूँ पहले भी कायल थे उनके, 
हर अदा उनकी लुभाने लगी है।

आसमान पहले भी यही था,
रौशनी नई -  सी आने लगी है।

छमछम बरसने लगी है बूँदें,
बदली - सी जैसे छाने लगी है।

एक पल की भी दूरी अब तो,
इस दिल को तड़पाने लगी है। 

Monday 12 November 2012

दीवाली

दीयों का त्यौहार दीवाली
उजाले का उपहार दीवाली
हर्षोल्लास की उमंग ले आती हर बार दीवाली

सन्देश यही, उपदेश यही
देते हैं यही शुभकामनाएं हम,
बेकारी, भुखमरी और भ्रष्टाचार के
रावण को मार गिराएँ हम
लेकर आये सबके लिए खुशियाँ अपार दीवाली

मिलजुल कर आओ आज
एक देश नया बनाएँ हम,
रामराज लौटे फिर, महंगाई की
लंका को जीत आयें हम
तोड़ डाले ऊँच नीच, भेदभाव की दीवार दीवाली

प्रेम-प्यार हर दिल में पले
अशिक्षा को दूर भगाएँ हम,
मानवता के नाम आज
आओ एक दीप जलाएँ हम
उम्मीद से रौशन कर जाये सारा संसार दीवाली

Monday 8 October 2012

परेशानियाँ

सभी तो परेशां हैं
फिर क्यों तुम ही
परेशानियों को ले -
परेशां हो
छोड़ दो इन्हें -
वक़्त पर ...

Thursday 27 September 2012

मकड़ी के जालों सा

छोड़ने से छूट जाती
गर हर बात यहीं
तो क्या बात थी,
तोड़ने से टूट जाती
गर ये डोर यूं ही
तो क्या बात थी।
मकड़ी के जालों सा
चिपका है ये जाल
ज्यों इन दीवारों पर 
तोड़े हैं कितनी बार
न जाने - ये धागे
बुन लेते हैं शिकंजा
मकड़ी के जालों सा
ज्यों इन दीवारों पर।

...बिन शिशिर

कोहरे की चादर में लिपटा
सोया है शहर सारा
बिन शिशिर-
कैसा ये तुषारापात हुआ

शीत लहर सी आई,
सन्नाटा सा छाया है
नव प्रस्फुटित डालियों पर-
कैसा ये तुषारापात हुआ

बिजली सी चमकी,
बादल से टकराए हैं
अचानक पृथ्वी पर-
जैसे वज्रपात हुआ।

Sunday 16 September 2012

चिंगारी

सीने में सुलगी चिंगारी को
कभी किसी ने देखा ?
दिल से उठता धुआँ
कभी किसी ने देखा ?
फिर क्यों आज ? क्यों आज ?
रोकते हो इन फुहारों  को
जब आग लगी थी,
तब क्या किसी ने ढूँढा था चिंगारी को ?
क्यों न देख पाए वो बादल,
जो उमड़े , गरजे , बरसे थे
फिर क्यों आज ? क्यों आज ?
टोकते हो मस्त हवाओं को ...

...हिमपात नही देखा

नर्म धूप नही देखी, सिहरती छाँव नही देखी
उगता सूरज नही देखा, ढलती शाम नही देखी
भीगी पत्तियों से बूंदों का टपकना,
तुषार में नहाये तृणों का चमकना
धुंध नही देखी अबके वात नही देखा,
हिम नही देखी अबके हिमपात नही देखा...

सर्द थपेड़े खा, अपने में सिमटना,
कमरे में आ, कम्बल में लिपटना
चिमनी नहीं देखी , उठता धुआं नहीं देखा
आंच से नम होता तन का रुआं नहीं देखा,

क्रीडा दल का हिम पर फिसलना
इधर से जाना, उधर से निकलना
पर्वतों पर जम गया प्रपात नही देखा 
हिम नही देखी अबके हिमपात नही देखा...

ऊपरे खड़े हो नीचे का नजारा
वो झांकना नीचे लेकर सहारा
अपना सा हर मंज़र अनजान नही देखा
कुछ दूरी से गुजरता यान नहीं देखा,

झाडी के फूलों की मदमाती सी चहक
निशाचरों की गूंजती, चुभती सी चहक
मृगशावक का कम्पित कोमल गात नही देखा
हिम नही देखी अबके हिमपात नही देखा...

घाटी में कहीं दूर- झील में तरती तरणी
मनोरम सुबहें, सर्द नीरव शाम सुहानी
बाघ नहीं देखे अबके मृग नहीं देखे
खुलते मुंदते उनके कोमल दृग नहीं देखे
सिमटे जोड़ों को थामे एक दूजे का हाथ नहीं देखा
हिम नही देखी अबके हिमपात नही देखा...


Friday 14 September 2012

बदलाव

अभी कल परसों की ही तो बात है
बगीचे में -
कलियाँ खिलती थीं
भीनी भीनी खुशबू से
आँगन महका करता था
हरे - भरे वृक्षों पर उगी
नई - नई कोंपलें देख
मन प्रफ्फुल्लित हो उठता था
उनकी छाया -
शीतलता देती थी
शाखों पर बैठे पक्षियों के
मिश्रित मधुर स्वर गूंजा करते थे
पर अचानक,
आज-
फूल, काँटों से चुभने लगे
खुशबू बदल गई -
उमस भरी हवाओं में
झड़ गई पत्तियां पेड़ों से
रह गई - सिर्फ सूखी टहनियां
धुप झुलसाने लगी -
जून की सी लू बनकर,
पंछियों का माधुर्य खो गया
उनके स्वर- कानों को कर्कश लगने लगे
अचानक सब कुछ - कितना बदल गया 


विरले

दीवानों की क्या हस्ती
करते फिरते मौज मस्ती
आसमाँ तक जाने वाले विरले हैं

बीच दरिया पड़े
खेलते रहते लहरों से
पार पाने वाले विरले हैं

मनमौजी मतवाले
सैंकड़ों भ्रम पाले
फिरते खानाबदोश से
रंगीनियों में मदहोश ही होंगे
आशियाँ बनाने वाले विरले हैं

परछाइयों के पीछे
भागते ऊपर नीचे
मद में जैसे चूर से
ठोकर खा बेहोश ही होंगे
पांवों पर चलने वाले विरले ही हैं 

Thursday 13 September 2012

गुज़रे लम्हे

खींच रही हैं बाँहें
खुली हुई जंजीरे क्यूँ

थामती हैं दामन
गुजरी हुई बहारें क्यूँ

वो पल हैं आँखों मे
हल्के से धुंधलाये से

याद आते हैं वो लम्हे
जो भूल गये भुलाये से

एक दिन

एक दिन तूफाँ  सा आया
आँधियाँ  उठने लगी
तेज़ हवाएँ चलने लगी

यकीं था कि तुम
हवाओं का रुख मोड़ दोगे
आँधियों को थाम दोगे
तूफ़ान को रोक दोगे
मेरा हाथ थाम मुझे सहारा दोगे
गिर पड़ने पर
उठ खड़े होने की हिम्मत दोगे

पर तुमने
मुझे तूफाँ में भटकने को
बेसहारा बेसुध छोड़ दिया
आस थी की चले भी गये तो
कुछ दूर जाकर आवाज़ दोगे
सोचा था एक बार पलटकर देखोगे

पर देर हो गई शायद
अरसे बाद
तुमने हाथ बढ़ाया तो
मेरी हिम्मत टूट चुकी थी
तुमने पुकारा तो
सुन पाने की ताकत क्षीण हो चुकी थी
तुमने मुडकर देखा तो
धूल भरी हवाओं में
सब कुछ धुंधला सा गया था


Tuesday 11 September 2012

साथ

एक राह दिखाई है मुझको
काले बादल ने जब भी घेरा है

दी है नई रौशनी तुमने
जब जब हुआ अँधेरा है

थामा  है हाथ मेरा जब जब
डर  ने किया बसेरा है

दी हैं खुशियाँ उस पल
जब ग़म ने डाला डेरा है



मुस्कुरा लें ज़रा

हँस लें आज
मुस्कुरा लें ज़रा

काँटों में खिलती हैं कलियाँ
फूलों के संग गा लें ज़रा

ग़म नहीं पी जायेगा घोलकर
प्याला लबों से हटा लें ज़रा

गिर पड़ें न लड़खड़ाकर
खुद को हम संभालें ज़रा

होने दो जो खफा हैं हमसे
दिल को आज मन लें ज़रा

आती है चांदनी कभी कभी
झूमकर आज गुनगुना लें ज़रा 

Monday 10 September 2012

बरसात

ये क्या पूछ बैठे तुम कि
फिर घिर आई घनघोर घटा
आँखों में नमी अभी तक थी
कल परसों की बरसात की

झर झर आती हैं बूँदें
क्या इनकी कोई कहानी है
या दास्ताँ करती है बयाँ
अपने बेबस हालात की

सूखने लगता है जब जब
किनारों पर भरा हुआ पानी
निर्झर सी बहती आती है
मौज कोई जज़्बात की

निशाँ

हैं बीच अभी तक दरिया के
हम समझे थे उतर गए

वो जख्म अभी तक बाकी हैं
लगते थे जैसे भर गए  

हैं बादल अभी  अम्बर में 
हम समझे थे गुजर गये

हमराही बन साथ चलते हैं
जो राही थे बिछड़ गये

जुगनू से चमके आँखों में
जो ख्वाब कभी थे बिछड़ गये

Sunday 9 September 2012

अफसाना

कुछ कहते कहते रुक जाना
कुछ चलते चलते कह जाना
ऐसा है दिल का अफसाना

बरबस यूँ ही रो पड़ना
फिर अनायास मुस्कुराना
ऐसा है दिल का अफसाना

बात को दिल से लगाना
कभी हँसी में उड़ा जाना
ऐसा है दिल का अफसाना

कहकर कुछ न कहना कभी
कभी ख़ामोशी से कह जाना
ऐसा है दिल का अफसाना 

धुंध

दिखती तो नही धुंध कहीं
क्यों ये साये धुंधलाये हैं

पतझड़ का नही ये मौसम
क्यों फूल पत्ते मुरझाये हैं

गूंजा नही घोंसलों में कलरव
जब महकती शीतल हवाएं हैं

नाचे नहीं मयूर जंगल में
जब नभ में बादल छाये हैं

गूंजी है आकाश में सरगम
दूर से ही सुन पाये हैं

सुनी नहीं जो तानें अब तक
लगता है भूल आये हैं 

Friday 7 September 2012

पल...

आज है उजला-उजला
कल जाने किस रंग-रूप हो
खिली है चाँदनी
कल जाने फिर धूप  हो,
ज्यों पानी का बुलबुला-प्रति पल
पलक झपकते होता ओझल
जीवन की लहरों का
जाने क्या स्वरूप हो...   

छाया

छाया ढलती,
संग संग चलती

समझ इसे अपना
हम बढ़ते रहते

हमारी छाया
रूप और आकार बदल
सदा छलती

अँधेरे की आहट होते ही
साथ छोड़ चलती
हमारी छाया
कहने को अपनी...


Monday 3 September 2012

आशीष से मोती

खड़ी है हाथ पसारे
वक़्त की राहों में,
काफिला निकल जाने की
बाट जोहती सी
आसमाँ के नीचे खड़ी
आँचल फैलाये कभी,
धरती पर क़दमों के
निशाँ खोजती सी
अदृश्य किसी धागे से
रेशमी डोर बांधती सी
मृगतृष्णा में बौराई
बदहवास भागती सी
खड़ी है हाथ पसारे
वक़्त की राहों में,
कि शायद कभी-
किसी डगर से गुज़रे,
और डाल दे हथेली पर-
आशीष से मोती।

तूफाँ सा आया था कभी

तूफाँ सा आया था कभी
कोहरा सा छाया था कभी

छंट गए  बादल
थम गई आंधी,

धुंध हट गई
काली रात कट गई
जिससे मन घबराया था कभी

बरसे हैं बादल फुहार बन
शीतल जलधार बहती है,

आने लगी है रोशनी
उन सभी राहों में
जहाँ अँधियारा छाया था कभी।


Saturday 1 September 2012

न जाने क्यूँ ...

इन शिराओं में -
बहता था-  लहू बन
एक जज्बा कभी

आठों पहर हवाओं में
गूंजा करता था
एक नगमा कभी

पर आज -
न जाने क्यूँ -
थम सा गया कारवां
खामोश हुई सदाएं

सांसों में न थी रवानी जब
वक़्त जैसे उड़ता था पंख लगाये
हर लम्हा जैसे
सिमटा जा रहा था

आज-  बदली है जिंदगानी जब
वक़्त जैसे रुक गया है
गड्ढों में भरे - बारिश के पानी सा
ठहर गया है ...

कई बार...

कई बार ऐसा होता है
कुछ मोड़ ज़िन्दगी के
बनावटी से दिखते हैं

पर जब-
गुज़रना पड़ता है
इन्हीं राहों से,
तब एहसास होता है
की वाकई -
उनका भी
कोई स्वरूप है

सही,  सच्चा,
चिरस्थाई नहीं
पर हाँ -
कभी कभी
ज़िन्दगी के
किसी मोड़ पर,
कभी तो
एहसास दिलाते हैं -
अपने अस्तित्व का,
बनावटी से दिखते -
ये मोड़ ज़िन्दगी के...

Friday 31 August 2012

सिलसिला

बनते हैं कुछ हाशिये
कभी मिट जाते हैं
यही सिलसिला
निरंतर चल रहा है

ओस पड़ती है कभी
कभी लावा पिघल रहा है
यही सिलसिला
निरंतर चल रहा है

थमा सा है वक़्त कभी
कभी तेज़ चल रहा है
यही सिलसिला
निरंतर चल रहा है

लगता है जैसे कोई
छलावा सा छल रहा है
यही सिलसिला
निरंतर चल रहा है... 

चलते चलते

चलते चलते शायद
बहुत दूर निकल आये हम,
जहाँ साया भी अपना
दिखलाई न दे
अपनी ही आवाज़
सुनाई न दे
चलते चलते शायद
बहुत दूर निकल आये हम,
हलकी सी भी आहट नहीं
पत्तों की  भी सरसराहट नही
चलते चलते शायद
बहुत दूर निकल आये हम...

Wednesday 29 August 2012

...डर लगता है

एक बार छला था
इस डगर ने यूँ
इन राहों से गुज़रते
अब डर लगता है

उस तूफाँ का नज़ारा है
आंखों मे अभी तक यूँ
कि दरिया में उतरते
अब डर लगता है

दस्तक भी होती है
गर दरवाजे पे कभी
बाहर देखते भी
अब डर लगता है

आये जो हलकी सी
क़दमों की आहट भी
क्यों सुनते भी
अब डर लगता है

धीरे - धीरे

धीरे - धीरे ही सही
इस धागे को सुलझा लें आज
ताकि गाँठ न रह जाये कोई
कुछ और नहीं -
एक कोशिश है ये
जाल से निकल
ताना - बाना बुनने की
बस एक बार और सुलझ जाए
सहेज  कर रख लें
ताकि फिर उलझन न आये कोई

Tuesday 28 August 2012

.....यूँ ही

कभी - कभी
भूल जाती हैं
कुछ चीज़ें
और -
खो जाने के भ्रम में
भुला दी जाती हैं

पर अचानक-
वही ज़रूरी चीज़ें
यूँ ही मिल जाती हैं
दबी हुई,
किसी अलमारी में बिछे
बरसों पुराने अखबार के नीचे

या फिर किसी
पेपर वेट के नीचे
या किसी टेबल के
शेल्फ के
किसी कोने में
पड़ी हुई यूं ही.....

मंजिल

तुम चल पड़ोगे जब
मंजिल की ओर
राह की धूप-
तुम्हारा नाज़ुक तन झुलसा देगी
तब थककर तुम
बैठ जाओगे
राह में किसी वृक्ष के नीचे
विश्राम को-

फिर तुम्हारा चेतन मन -
तुम्हें झकझोर देगा
क्या थककर बैठ जाने से
बात बनेगी, मंजिल मिलेगी?

तुम फिर उठ खड़े हो जाओगे
फिर चल पड़ोगे
मंजिल की ओर
सर्द हवा में ठिठुरते-
हथेलियाँ मलते और सिकुड़ते

फिर देखकर कहीं
बैठ जाओगे,
हाथ तापने को
जलाई आंच

फिर तुम्हारा अंतर्मन
तुमसे पूछेगा -
कब तक बैठे रहोगे
हाथ तापते

तुम फिर खड़े हो जाओगे
और चल दोगे आगे
चलते  चलते पाओगे
सूखे  पत्ते तिनकों से
हवा में उड़ते
पांवों में आ पड़ते

तुम्हारा मन
बेचैन हो उठेगा
और तुम
उलझन में पड़ जाओगे
फिर अवचेतन मन
तुम्हें जगायेगा
आगे राह दिखायेगा

तुम फिर बढ़ चलोगे
चेतन हो
फिर बारिश की
बूँदें तुम पर बरसेंगी
तुम उन फुहारों में
तर हो जाओगे

मिट्टी से खुशबू उठती पाओगे
जिसके लिए अब तक
भटक रहे थे रुक रुककर
उतावले थे थम थमकर 

Monday 27 August 2012

रोशनदान से

सभी खिड़कियाँ और दरवाजे
बंद कर -
हम रोक तो लेते हैं -
तेज़ हवा के झोंकों  को
लेकिन - नहीं रोक पाते,
उन तरंगों को-
जो चली आती हैं
किसी खिड़की के
चटखे हुए कोने से,
दरवाजे में छूटी झिरियों से
या  फिर -
रौशनी को छोड़े गए
किसी खुले रोशनदान से ...   

क्यों याद आते हैं...

क्यों याद आते हैं
वो - जो बिछुड़ गए

जो साथ थे कभी
अब जाने किधर गए

चमक उठती हैं आँखें
उन खुशियों को याद कर
जो बरसों पहले पाई थीं

भर आती हैं  आँखें
सोच उस उदासी को
जो जीवन में छाई थी

क्यों लौट लौट आते हैं
लम्हे जो गुज़र गए

महका है तन मन
उन फूलों की खुशबू से
जो दिल में खिले थे

डर जाता है दिल
सोचकर ही-
परबत से जो हिले थे

क्यों मन को बहकाते  हैं
बादल जो बरस गए     

Sunday 26 August 2012

कल आज और कल

कल भी तो यही हुआ था
आज कौन सी अलग बात है
आज भी यही हुआ
कल कौन सी नई बात होगी

जब यही था,
यही है
और यही होना है
तो क्यूँ बार बार फिर -
वक़्त - अपना और उनका
बर्बाद करें -
माँग माँग इजाज़त...

Saturday 25 August 2012

राहें

राहें जो बनाई हैं मैंने
उनमे दीवार खड़ी हो कोई
सितम ऐसा तो नहीं ढाया  मैंने

चाँद छूने की, की है  ख्वाहिश
पूरा आसमाँ मिल जाये
ऐसा तो नहीं चाहा मैंने...

बरसों जो संजोये रखा
बस वही खुदा से माँगा है
सारा जहाँ तो नहीं माँगा मैंने

एक फूल की, की है तमन्ना
सारी कलियाँ दामन में भर लूँ
ऐसा तो नहीं चाहा मैंने...

Friday 24 August 2012

सच

सच है  - कि सच
सच ही रहता है
सच के समीकरण
भले ही बदल जाएँ

ये भी सच है
की झूठ -
झूठ ही होता है
उसके आवरण
कितने भी बदल जाएँ

इस सच और झूठ के बीच
हमेशा चलता रहता है द्वंद्व,
निरंतर-

कभी सच विजयी होता है
तो कभी झूठ- सच को
चिढ़ाता-सा प्रतीत होता है

लेकिन फिर भी सच,
सच ही रहता है
और झूठ झूठ ही होता है.

बहुत दिनों बाद

बहुत दिनों बाद है जो कि
खुली हवा में सांस आया है

बहुत दिनों बाद है जो कि
ताज़ा एक झोंका आया है

सुबह- सर्दियों सी सरसराती है

शाम गोद में सिर रख सहलाती है

बहुत दिनों के बाद है जो कि
निश्छल सा सान्निध्य पाया है

सपनो की जैसे होती है दस्तक

खुला खुला है धरती से नभ तक

बहुत दिनों बाद है जो कि
तन मन में स्पंदन आया है....

Monday 30 July 2012

अभी संभलना बाकी है

कितनी बातों का मतलब अभी समझना बाकी है,
ठहर जाओ कि दिल का अभी संभलना बाकी है.

डर है कहीं अजनबी न रह जाएँ हम
चाहकर  भी कुछ न कह पायें हम
मिलने लगी हैं राहें पर
हमें अभी खुद को समझना बाकी है,
ठहर जाओ कि दिल का अभी संभलना बाकी है.

क्या जानें दिल की बातें जो नादान हैं
सीने में उठते तूफ़ान से अनजान हैं
थमने लगी है आंधी पर
मौसम का अभी बदलना बाकी है,
ठहर जाओ कि दिल का अभी संभलना बाकी है.




रुपहले रंग

रुपहले इन रंगों  में
यूँ रंग गई आँखें
कि नज़र आया न
कुछ और फिर...

डूब गए इस कदर
की भूल बैठे सब

बनकर बादल आज ये रंग -
बरस गए आँखों से,तो जाना-
और भी हैं रंग इस जहाँ में,

बेतरतीब हो चली थी
हर चीज़ ज़िन्दगी में,
होश में आये तो जाना-
जीने का भी है ढंग इस जहाँ में...


Sunday 29 July 2012

क्यूँ, किसलिये

क्यूँ, किसलिये?
कैसा संताप मन में...
जबकि ये पता है-
सौंप रखा है -
वो पल ज़िन्दगी ने -
आने वाले कल की अंगड़ाई को...

फिर क्यूँ नहीं -
कुछ देर आँखें मूँद,
भूल जाएँ हम
इस पल की परछाई को...

क्या रखा है
इस लम्हे में ?

क्यूँ इसको थामे रखा है ?
गुज़र जाने दो इसे-
जिस पल को बांधे रखा है...


Saturday 28 July 2012

समझ नहीं पाती-2

समझ नहीं पाती
सूखकर मुरझाने दूँ
इन लताओं को
जो रौंपी थी कभी
अपने ही हाथों से

या सिंचित कर
तरोताज़ा होने दूँ

सूखी मिट्टी में
पानी के छींटे पड़ते हैं
सौंधी-सी अपनी खुशबू से
अलसाई शाखों में
नवचेतना भरते हैं।

समझ नहीं पाती -1

समझ नहीं पाती
कि धुल जमने दूँ
या झाड़कर
साफ़ सुथरा कर-
सहेजकर रखूँ
शेल्फ पर पड़ी -
पुरानी किताबों को
कुछ दुबकी पड़ी हैं
कोनों में इधर-उधर
छुप गई हों मानो
सफाई के डर से,
कुछ - झांकती - सी
दिखती हैं बाहर
झाड़ - पोंछ की मानो -
करती हों गुहार।

Wednesday 25 July 2012

The shower


when it is shower
upon the building and on the tower
on the leaves and on the flower,

everything gets pure
make the beauty sure
shows the natures cure,

When it stops drizzling
Birds start sizzling
Sputter on the trees dangling.

Tuesday 24 July 2012

The life


Various types of things
Scattered around us,
Filthy and fine.
Filthy of these
Attempt to bind us.

Distinct incidents
In life one owns,
Heat of sun and
Shadow of love,
Flowers and thorns,

Thorns just meant
To arise distress,
Flowers bloom to
Beautify the world,
And give fragrance
To the distressed one.

The mistake


It was a mistake
But the mistake was
an innocent one,
Was that a mistake
Or is the present one. 

Monday 23 July 2012

The …..


The …..
one day will explode
Which they have put in me.
And then they’ll  realize,
How aggressive I’m,
Not cool
As they suppose to be.

Candle of life


In life we have to face
Glitters of joy
And thunders of fate.

We all have to chase
Light of truth,
Darkness of lies
As life is a long race.

Phases changes like seasons,
Time flies like feathers.

Candle of life one day will extinguish,
Each moment is to be cherished.

Spread the fragrance of laughter,
To be felt ever after.

Friday 20 July 2012

Everyone has right to live


Everyone has a life to live.
Everyone has right to survive.

Not just humans
Also trees and plants,
Birds and wilds,
All posses right to be alive.

Just like us
They breathe,
They feel
And help us to revive.

Thursday 19 July 2012

One Day...


Seeing a cloudy rock
in the sky one day,
my heart began to
dangle with gay.

I pleased and took a sigh,
Hope for rain was too high.

I sang - "come o rain come o rain",
Comfort and relief so that we gain.

“Not a cloud a mimic he is,
not showers, playing a trick”.

Said earth that was chinked,
smiled and her eyes blinked.

Wednesday 18 July 2012

The Inspiration

It is must
that only inspiration
is behind success,
could be little,
huge
and in excess.

It is someone
To Whom
One wants to impress,
Who encourages,
Stimulates
When one is in distress.

It is a power
To boost
When one is demoralize,
To animate,
To inspirit
and to sympathize.

Life for the kids

Life for the kids
just to intend to play,  
with beautiful toys
and with soft clay.

The shadow of malice
And spite, has no way,
Feeling of regret and
Grief, Is far away.

Phantom of fear
Not allowed to stay,
The innocent smile
that never to betray.

Monday 16 July 2012

मौसम बदल रहा है...

मौसम बदल रहा है
उमस भरी हवा में अब
काया नही झुलसती,
बदला है रुख
पूरब के गर्म झोंके का.

मौसम बदल रहा है
सीत्कारती सर्द लहरें
शूल सी नहीं चुभती,
बंद है द्वार पश्चिम के
खुले झरोखे का.

मौसम बदल रहा है
बेकल नही करते
झड़ते  पीले पत्ते
उत्तर में मुह मोड़ा है
अंतर में उठती लहरों का

मौसम बदल रहा है
चित्त को चित्त करते है
उगते किसलय दल,
महका है कोना कोना
दक्खिन के उपवन का.

आस के पंछी

उड़ते - उड़ते दूर
बहुत दूर चले जाते हैं
आस के पंछी,

शाम ढ़ले घोंसलों में
लौट आते हैं
आस के पंछी,

सवेरा होते ही
चल देते नई उड़ान पर
आस के पंछी,
 
क्षितिज की चाह में
भटकते फिरते
आस के पंछी...

Sunday 15 July 2012

राह ज़िन्दगी की

किस - किस को समझें
किस - किस को जानें

हर कोई किसी को समझ पाता अगर
आसान हो जाती राह ज़िन्दगी की...

चाहत ही काफी नहीं
जज्बा झी ज़रूरी है,

चाहने भर से कुछ मिल जाता  अगर
आसान हो जाती राह ज़िन्दगी की...
 

आँखें

आइना खुद बन जाती हैं आँखें
बिन बोले सब कहती हैं आँखें

दूर हो अपना कोई
तो भर आती हैं आँखें,
टूट जाये सपना कोई
नीर बहाती हैं आँखें,

बेबसी में जाने क्या क्या
सह जाती हैं आँखें...

पाकर एक झलक उनकी
चमक उठती हैं आँखें,
उनके रंग में रंग
मचल उठती हैं आँखें,

जुदाई में तो बहती ही हैं, आ जाएँ वो
तो ख़ुशी से छलक उठती हैं आँखें...

लब बोलें  न बोलें
कह जाती हैं आँखें
आइना खुद बन जाती हैं आँखें...















Saturday 14 July 2012

प्यार तो अनमोल है

जो भी पाया है तुमसे
क्या थोड़ा क्या ज़्यादा है,
जितना भी मिल जाये कम है
कम भी मिले तो ज़्यादा है.

हर ख़ामोशी एक बोल है
ये प्यार तो अनमोल है
क्या थोड़ा क्या ज़्यादा है,

ये प्यार की बातें
दिल से दिल का वादा है
क्या थोड़ा क्या ज़्यादा है,

लेना ही बस प्यार नहीं
मिट जाने का भी इरादा है,
क्या थोड़ा क्या ज़्यादा है...

Friday 13 July 2012

The spring

Anklets of falls sound twinkling,
Thrills the heart water’s sizzling.

Breeze is felt like a fragrant flower,
Sky is cleaned by the shower.

Pearls dropped on the petals,
Daisy, daffodils, berries and beetles.

Crickets sing what’s the reason,
Perhaps greeting the spring season.

Sun peering behind the cloud,
Thunders’ showers sounds loud.

Smiling face of a child

Smiling face of a child
Looks like an opening bud
Doesn’t matter
either in water or in mud.

When a child smiles
Illuminates thousands of hearts
And the laughter brings
greenery in the deserts.

A precious gift by nature
Nothing stands in the side
Fragrance of blooming flower
No other beauty worldwide.

नन्हीं - सी गुड़िया

पिता काश मैं रहती सदा नन्हीं - सी गुड़िया 
खेलती तेरे आम की छैंया तले 
उछलती कूदती नन्हें क़दमों से 
चहकता आँगन मेरे तोतले बोलों से 

काश बड़ी न होती  
रहती माँ के आँचल तले 
छोडकर आते तुम स्कूल 
चलती तेरी अंगुली थामे 
नन्हे नन्हे हाथों से 

करती माँ को याद
माँ के हाथों बनी खीर पूरी
खाकर आधी छुट्टी में

छुट्टी होने पर
करती इंतजार माँ के लेने आने का
घर आने पर माँ खिलाती अपने कोमल हाथों से
फिर मन बहलाती मैं स्कूल की ढेरों बातों  से 

और पिता जब शाम ढले तुम घर आते
देख तुम्हें कुछ दूरी से
विह्वल हो दौड़ी आती
तुम्हारी अंगुली  पकड़ तुम्हें घर लाने  को 

लाकर पानी का गिलास
देती तुम्हारे हाथों में
तुम फेरते सिर पर हाथ
हो विभोर मेरी प्यारी बातों  से

खाने की फिर आती बारी
माँ बनाती रसोई 
मैं लाकर देती
एक एक रोटी बारी बारी

फिर सोने से पहले देखते तुम होमवर्क
दिखाकर तुम्हें कापियां मैं झटपट सो जाती
और कभी होमवर्क न करने पर
डरकर माँ के आँचल में छुप जाती

पिता अब ये बातें जब याद आती
बचपन की यादें बड़ा सताती 

काश मैं रहती सदा नन्हीं सी गुडिया 
खेलती तेरे आम की छैंया तले
न तुमको विदाई की चिंता 
न मुझको ग़म जुदाई का 
वो दिन थे कितने भले...........

Wednesday 11 July 2012

सत्य के पुतले

सत्य के पुतले
सफेद काग़ज़ - सा तन
निर्मल जल - सा स्वच्छ मन
धवल किरणों - से
उजले दिखते हैं हम 
मात दर्पण को करते हैं हम

चौराहे पर खड़े / सन्देश पट्ट लिए
हर राह गुज़रते को देते हैं नसीहत -
'सदा सत्य बोलो'

स्वयंमेव / अपने में 
कितनी कालिमा / कितना छल
कितना अंधकार समेटे हैं
कितने मलिन / कितने कटु हैं

करते हैं -
सत्य का चीरफाड़ / उड़ाते हैं धज्जियाँ
मिथ्या तर्क कर / असत्य को -
सत्य  का जामा  पहनाने की  -
करते हैं कोशिश,

नाकाम होने पर - 
स्वयं गढ़ने लगते -
सत्य की नई नई परिभाषाएं
क्योंकि - हमें प्रस्तुत करने हैं -
ऊँचे आदर्श / करनी है स्वार्थ सिद्धि,

किये रखना है वश -
हर जाति हर / कौम को
हर संस्कृति  / हर समुदाय को 
हर जीव / हर जन को
हर पंछी / हर प्राणी को
फूल को / हर उपवन को
पत्ती को / हर पौध को

हर ईंट हर पत्थर को
हर दर और दीवार को
हर रस्म और रिवाज़ को
देश को समाज को
हर बंधन / हर रिश्ते को
अपनेपन  और प्यार को

इसलिए, हम करेंगे - अन्वेषण
खोजेंगे नए नए अर्थ सत्य के
ताकि हम कर सकें / एक छत्र राज्य

पर तुम कभी हिमाकत न करना
हमारी टोह लेने की चाहत न रखना
नहीं तो हम तुम्हारे मस्तक पर
सदा के लिए मंढ़ देंगे आरोप
की तुम पापी हो / अधर्मी हो / दुष्ट हो
क्योंकि हम/ हम हैं
और तुम / तुम

और चलता रहेगा ढोंग
हमारे सत्य का / आदर्शों का / पुण्य  का / धर्म का 
और तुम हमें छू भी न पाओगे
हमारे विरुद्ध / सत्य कहने पर भी
असत्य कहलाओगे 
जब तक - हम / हम हैं
और तुम / तुम हो...





कोई क्या जाने

शाम ढलते ढलते
शांत लहरें रह जाती हैं साहिल पर
थककर शांत हो गई हों मानो
दिन भर कितने तूफान आये
कोई क्या जाने..

बरसात थमने पर
खुला आसमान नज़र आता है
पल में सब धुल गया मानो
गरज - गरज बादल  मंडराए 
कोई क्या जाने..

अंकुर

मिटटी में दबे
असंख्य बीजांकुर
प्रस्फुटित हो
समय समय पर
अन्तराल में
आँखें खोल
अँगड़ाई ले उठते हैं,

वसुंधरा के अंक
भोर कनियों की मुस्कान पा
चम्पई हो जाते हैं,

सलिल संचार पा
विहार पवन हिंडोले
मंद मंद मुस्काते हैं,

ग्रीष्म से तापित
वृष्टि से सिंचित हो
हरे भरे हो जाते हैं,

मधुकर की गुंजार पा
मकरंद सुगंध बिखरते है..

खाई

टीवी स्क्रीन पर
उभरती तस्वीरों में,
असीम सौन्दर्य के
दर्शन करता चित्रकार

अपनी कल्पनाओं में
करता उन्हें साकार
पुलकित होता
उन्हें निहार
एग्जिबिशन लगा
पाता वाहवाही बार-बार

नदारद हैं वो चित्र
उसकी आँखों से
जो बिखरे हैं आस पास
फटे मैले कपड़े पहने
भीख मांगते गरीब

उसे घृणा है उनके झोंपड़ों और
आसपास फैले कूड़े के ढेर से
जिनसे उठती सड़ांध
करती है जीना दूभर

सूखे वाटर टैप
बूँद बूँद को तरसती
तमाम बेहाल जनता
उनके बिसलेरी वाटर में
नहीं समाते जिनके स्वप्न...
  
 

बहार

अंकुर फूटने के लिए
बारिश की
एक फुहार काफी है
क्यूँ अधीर होता है -
मन
अभी तो
आनी बहार बाकी है... 

न छेड़ो

न छेड़ो बीती बातों को
जो धूमिल हो चुकी हैं

रहने दो उन यादों को
जो खाक हो चुकी हैं

आया है लम्हा लम्हा
खुशियों का पैगाम ले...

कोरे काग़ज़ पर

मन के कोरे काग़ज़ पर
चित्र उकेरे तो हैं

कालिमा को दूर कर
रंग बिखेरे तो हैं

रंगों के इस मेघ में
बनी तो है तस्वीर कोई

लगता है शायद
जागी है तकदीर सोई 

भोर

भोर -
क्यूँ इतनी नीरव ?
बिखेर अपनी कनियाँ
कर आलोकित
जग का उपवन उपवन
हर वृक्ष वृक्ष उपवन का
लता लता हर वृक्ष की
और हर पत्र लता का.

Tuesday 10 July 2012

दोस्त

एक दिन मुझको एक दोस्त मिला
मुझको अपना सा जान पड़ा
मैंने समझा फूल है
चुनकर आँचल में छुपा लिया

समझ हवा का झोंका उसको
खुशबू सा मन में समा लिया
धीरे धीरे उसने फिर
घर आँखों में बना  लिया

ख्वाब बनाकर पलकों पर
मैंने उसको सजा लिया
फिर एक दिन अपना मान उसे
दिल में  अपने बसा लिया

अंतर्मन

मैं - तुम्हारा अंतर्मन
आस -पास क्या देखते हो ?
किसे ढूंढते हो ?

तुम्हारी ही अपनी आवाज़ हूँ
तुम्हारा ही प्रतिबिम्ब हूँ...

तुम्हें पुकार रहा हूँ,
जगाना चाहता हूँ
उठो,जागो, चेतो
अपनी आवाज़ बुलंद करो

तुम्हारे ललाट पर
स्वेद - कण नहीं
आँखों में आभा हो
मुखमंडल के तेज की...

उपवन में

आई घटा उपवन में
हलकी हलकी गुंजार हुई

फिर प्रस्फुटित हुए स्वर
वीणा पर फिर झंकार हुई

आई  है फिर एक किरण 
रोशनी का संसार लिए

छाया बादल  नभ में
रिमझिम बौछार लिए

Monday 9 July 2012

यकीं

यकीं है -
एक दिन तो मौसम बदलेगा
ये मेघ -
फुहार बन बरसेगा,
 
फूटेंगी कोंपलें
वृक्षों की शाखों से
चमकेंगे जुगनू
नन्हीं आँखों में,

पत्थर जो तराशे नहीं गए
चमकेंगे अपनी आभा से
दिल को यकीं है....  

अरमाँ

बनकर गूँज हवाओं में
कोयल सी - चहकूं मैं

अरमाँ है चहुँ दिशाओं में
खुशबू - सी महकूँ मैं,

पंछी - से पर खोले
अम्बर की सैर करूँ,

खाली - खाली सपनों में 
रुपहले - से रंग भरूँ.

सफ़र


रात का सन्नाटा देख
मन उद्विग्न हो उठता है
आभास होता है -
यहीं तक था सफ़र उजाले का ?
निराश मन भटकने लगता है

फिर - किरणें आती हैं,
सवेरा आता है, उजियारा फैलाता है,

इस प्रभात बेला में -
मन प्रफुल्लित हो उठता है
अँधेरे से निकल -
फूल - सा खिल उठता है.

इस बेला में जितना प्रकाश / उज्ज्वलता
संजो सकें, कम है     
फिर सांझ के लिए
होने को तत्पर

ताकि / फिर
निराश न हों
हताश न हों
संचित रोशनी का एहसास कर उद्वेलित हों,

फिर आएगा दिन
यही सृष्टि / जीवन / सृष्टि का नियम है
अनिवार
अनवरत
अनंत...


तुम्हारे बिना

ऐसा तो नहीं
दिन नहीं होता या रात नहीं होती
हाँ तुमसे दूर रहकर जीने में
ये बात नहीं होती

ऐसा तो नहीं
बादल नहीं छाते या बरसात नहीं होती
पर सावन की रिमझिम बूंदों में
ये बात नहीं होती

ऐसा तो नहीं
बीते लम्हों की यादें साथ नहीं होती
हाँ दिल की धड़कन में
ये बात नहीं होती

ऐसा तो नहीं
रातों में चाँद तारों की बारात नहीं होती
पर मद्धम मधुर चांदनी में
ये बात नहीं होती  

किस्मत

मोहब्बत करते जो डरते हैं
वो नादान होते हैं

ज़माने भर की खुशियों से
वो अंजान होते हैं

कहते हैं मिलता है प्यार नसीबों से

इश्क के समंदर में
किस्मत आजमा लें हम भी

मोती सा अनमोल है प्यार
क्या पता पार पा लें हम भी.

हम तुम

थाम लिया तुमने
वरना -
तूफानों में घिर जाती कश्ती मेरी

न देते साथ तुम
तो बनने से पहले
मिट जाती हस्ती मेरी

ठहर जाये ये लम्हा
संवर जाये
किस्मत अपनी

रोक लिया तुमने
जाने कहाँ ले जाती
बेबसी अपनी

न मानते अपना तुम
हो जाती बेगानी - सी 
ज़िन्दगी अपनी

मुस्कुराएँ जो हर पल
महक उठे
तनहाई अपनी 

वेग

रोक ए नदी
अपने वेग को
पड़ी  हैं किनारे
असंख्य मणियाँ
बह न जाएँ
तेरे अथाह प्रवाह में.....

वसंत

खुलने लगी हैं पंखुड़ियाँ  
नन्हीं आँखें खोल,

महकने लगे बनफशा
वसंत की आहट होते ही

लेने लगी अँगड़ाई -
मिट्टी में दबी गुठलियाँ 

हिलोरें लेती है बया
वृक्ष की डालियों पर
वसंत की आहट होते ही...

वंदना

वीणावादिनी
हे जगप्रकाशिनी
श्वेत पद्म वासिनी
हे स्वर प्रवाहिनी
तमस तारिणी
हे जग उद्धारिणी
हंस वाहिनी
हे विद्या दानी

प्राणों में आज,
नव - किरण संचरित कर दो.
तारों में फिर -
स्वर अलौकिक मुखरित कर दो.

करो दृष्टि इस लोक
ले रूप कोई अवतरित हो,
दो आशीष, है नम्र निवेदन
माँ  पुलकित हो

फिर स्वरों को अपने
वीणा पर संधान करो,
समस्त सृष्टि में गूंजे तान
ऐसा कोई विधान करो.

करो स्वर वृष्टि
वाणी को झंकृत कर दो
दे विद्या - अनुग्रह 
जीवन - काव्य अलंकृत कर दो.






आवाज़

आवाज़ जो गूंजी है
खनक चूड़ी की नहीं
और न -
छनक है पायल की 

ये स्वर लहरी तो
मन के तार की है.

मन को -
क्या समझेगा कोई
क्या जानेगा कोई..

मन की बात
तो बस उस पार की है..

चाँद तुझे देखे बिना

जा छुपा है बादल में
क्यूँ  मुझे तड़पाने को
कि अब नींद नहीं आती
ए चाँद तुझे देखे बिना..

तनहाई में भटकना 
अब आदत हो गई है
जान भी नहीं जाती
ए चाँद तुझे देखे बिना..

ये तेरी शरारत है
कि लेता है इम्तेहान मेरा
ये अदा समझ नहीं आती
ए चाँद तुझे देखे बिना..

 

क्यूँ

क्यूँ चली आती हैं ये हवाएँ
एक हूँक - सी उठाती मन में,
जिनको मोड़ दिया था हमने.

कल की तस्वीर दिखा दिखा
क्यूँ  चिढ़ा रहा आइना,
जो तोड़ दिया था हमने.

झुलसाने लगा है सूरज
अपनी तपती किरणों से जो,
प्रकाश पुंज माना था हमने।.

कर रहा है अठखेलियाँ
छुप-छुपकर चाँद भी,
जिसे सखा जाना था हमने.

  

Saturday 7 July 2012

फासले

फासले - कम हों
कितने भी
जब तक
मिट न जाएँ,
मंजिल दूर होती है.

बेवजह तो
कुछ भी नहीं
हर बात की कोई
वजह ज़रूर होती है.
 

क़यामत से पहले

था इंतज़ार एक क़यामत का
आ गई क़यामत 'क़यामत' से पहले,

कैसे है ये खुदाई खुदा की
मार डाला हमें हिदायत से पहले,

सोचा जो एक बार तोड़ दें बंधन
पड़ गई जंजीरें हिमाक़त से पहले,

लब हिल भी न पाए शिकवे को
मिल गई सफाई  शिकायत से पहले,

भुलाने चले जो रंजो ग़म को
दर्द मिल गया राहत से पहले,

इम्तेहान की मांगी थी मोहलत
बन गया मुक़द्दर इजाज़त से पहले.

एहसास

एक-एक धड़कन -
एक साज़ लगती है,
हर ख़ामोशी एक
अल्फाज़ लगती है.

हर सुबह नई एक
नया आग़ाज़ लगती है,
ढलते -ढलते शाम
कुछ नाराज़ लगती है.

हर ख़ामोशी एक
अल्फाज़ लगती है.

गूंजती -सी हवाओं में
एक आवाज़ लगती है,
हर चीज़ हर बात -
एक राज़ लगती है.

एक-एक धड़कन -
एक साज़ लगती है

सोचती हूँ

सोचती हूँ -
आइना न बन जाएँ आँखें,
तेरी सूरत कभी निगाह से  -
हटाया भी करूँ.

दिल मुझको भूल जाये न -
तेरा ख्याल कभी दिल से
भुलाया भी करूँ.

बेखुदी में होश खो जाए न -
दिल को कभी,
होश में लाया भी करूँ.
आइना न बन जाएँ आँखें....

पहली फुहार

पहली - पहली फुहार -
जो भीषण गर्मी से,
देती है राहत मन को,

अरसे तक रहती है,
उस बरसात की
चाहत मन को.

यूँ फिर आती हैं -
मौसम के साथ बौछारें,

पहली -पहली बार
हलकी - सी बूँदें जो
प्राण फूंकती हैं -
तरुणाई शाखों में

अरसे तक रहती है,
उस बरसात की
चाहत मन को.

आंसू

न आते अगर
आँख में आंसू -
तो दर्द का दिल में,
एक दरिया बहता होता

कहानी अपनी कहने को
दिल - हर पल
तड़पता होता .

आंसू ही तो हैं जो
आँखों से बहकर  
मन की बात कहते हैं

ग़म तो ग़म -
ख़ुशी में भी बहते हैं. 

दीपशिखा

मन में उजियारा करने को
तम की आंधी हरने को,

जग को आलोकित करने को
स्वप्नों को पुलकित करने को,
प्रज्ज्वलित हो एक दीपशिखा.

ईर्ष्या औया द्वेष मिटा -
प्रेम-सुधा बरसाने को

पथराई-सी आँखों में
फिर से आस जगाने को  
प्रज्ज्वलित हो एक दीपशिखा.

आंसू का दामन छोड़ -
मुश्किलों से लड़ जाने को

अवचेतन को चेतन कर -
प्रबल उत्साह जगाने को
प्रज्ज्वलित हो एक दीपशिखा.



Friday 6 July 2012

रूबरू

कहते हैं हम खुदा जिसे,
खुदा की शख्सियत में
आया तो नहीं नज़र कहीं
यूँ - शक नहीं
उसकी खुदाई पर
हो जाते जो -
रूबरू एक बार
दराज़ हो जाता यकीं.

Put off the spectacles


Open the doors
Let the wind come in,
Open the windows
allow the sunbeams fall in.

Raise the curtains    
Let the view outside to be seen.
Leave no space for suffocation
Let the beauty and ugliness to be seen.

Put off the spectacles
Then face the world
With your naked eyes.

आशा के दीप

खुद नहीं जलते
आशा के दीप
जलाये जाते हैं

यूँ ही नहीं जाते
रास्ते - मंजिल तक
ले जाये जाते हैं

रास्ता -
जो ले जाये  मंजिल तक
खुद ही बनाना होगा 

हर अँधेरी राह के
अँधेरे हर मोड़ पर
एक दीप तो जलाना होगा.

मंजिल

कुछ दूर चल
कुछ दूर आगे बढ़
थोड़ा -सा पा लेने पर
थोड़ा -सा संजो लेने पर,
मंजिल पा लेने का
छलावा-सा होता है.

पर-
सहसा-
बिजली-सी कौंधती है,
आवाज़-सी आती है
क्षितिज ये नहीं
मंजिल ये नहीं..

फिर कुछ और आगे चल-
कुछ और आगे बढ़-
साहिल पर आ जाने का
 भ्रम-सा होता है.

पर फिर-
रह-रहकर 
एहसास होता है-
अनुभूति होती है-
अपरिमित ये अम्बर है.
क्षितिज तो भ्रम भर है.





बिखरे मोती

टूट गई जब लड़ियाँ
क्या करना है-
चुनकर बिखरे मोती
टूट गए तो क्या -
कच्चे धागे थे आखिर
मोती  सच्चे हैं
खोट नहीं इनमे
इनसे कैसा शिकवा फिर-

माँ


माँ ज़िन्दगी मैंने तुझसे पाई है
माँ तुझमे सागर सी गहराई है

जब मैं नहीं था दुनिया में
तेरे अन्दर जी रहा था
तेरी छाया में पलते पलते
सवाल दिल में यही रहा था

माँ कैसी होगी
वो छाया कैसी होगी

जब आँखें खोली
दुनिया में आया
डरा-सा, सहमा-सा
तूने दुलारकर थपथपाया
और सीने से मुझे लगाया

जैसा सोचा था मैंने
उससे बढ़कर तुझको पाया
तेरे आँचल की छाँव में
खुद को महफूज़ पाया.

एक राह

एक राह क्या आई नज़र
मुस्कुराने लगी है ज़िन्दगी.

जो अब तक चुपचाप थी
अब गाने लगी है ज़िन्दगी.

जाने क्या हुआ जो झूमकर
गुनगुनाने लगी है ज़िन्दगी.

कहने को बस इतना है
की रास आने लगी है ज़िन्दगी

जो दूर थी अब तक
पास आने लगी है ज़िन्दगी.

मुट्ठी भर तारे

बस में नहीं यहाँ
ज़मीं के उजाले भी
फिर शिकवा कैसा
आसमां के चाँद से
मद्धम ही सही,
छिटकी तो है चांदनी
शीतलता बिखराने-
घर के आँगन में
भरने को आतुर है मन-
बस-मुट्ठी भर तारे दामन में.

Thursday 5 July 2012

बालक

चन्द्र-से चंचल
नीर से निर्मल
कमल-से कोमल 
स्वप्नों-से स्वप्निल
सुन्दर स्नेहिल.
तन को शीतल
मन को पावन कर,
उपवन महकाते
सोये स्वप्न जगा
मंद--मंद मुस्काते.
मयूर-से मोहक
साधु-से सम्मोहक
मन हर्षाते 
सुध-बुध भुलाते .
भावना-से विह्वल
नदिया-से निश्छल
विभोर करते
निस्वार्थ रहते.
उजाले-से उजले
संध्या से सुहाने 
उदित होते-छिपते
अठखेलियाँ करते.....