Thursday, 27 September 2012

मकड़ी के जालों सा

छोड़ने से छूट जाती
गर हर बात यहीं
तो क्या बात थी,
तोड़ने से टूट जाती
गर ये डोर यूं ही
तो क्या बात थी।
मकड़ी के जालों सा
चिपका है ये जाल
ज्यों इन दीवारों पर 
तोड़े हैं कितनी बार
न जाने - ये धागे
बुन लेते हैं शिकंजा
मकड़ी के जालों सा
ज्यों इन दीवारों पर।

...बिन शिशिर

कोहरे की चादर में लिपटा
सोया है शहर सारा
बिन शिशिर-
कैसा ये तुषारापात हुआ

शीत लहर सी आई,
सन्नाटा सा छाया है
नव प्रस्फुटित डालियों पर-
कैसा ये तुषारापात हुआ

बिजली सी चमकी,
बादल से टकराए हैं
अचानक पृथ्वी पर-
जैसे वज्रपात हुआ।

Sunday, 16 September 2012

चिंगारी

सीने में सुलगी चिंगारी को
कभी किसी ने देखा ?
दिल से उठता धुआँ
कभी किसी ने देखा ?
फिर क्यों आज ? क्यों आज ?
रोकते हो इन फुहारों  को
जब आग लगी थी,
तब क्या किसी ने ढूँढा था चिंगारी को ?
क्यों न देख पाए वो बादल,
जो उमड़े , गरजे , बरसे थे
फिर क्यों आज ? क्यों आज ?
टोकते हो मस्त हवाओं को ...

...हिमपात नही देखा

नर्म धूप नही देखी, सिहरती छाँव नही देखी
उगता सूरज नही देखा, ढलती शाम नही देखी
भीगी पत्तियों से बूंदों का टपकना,
तुषार में नहाये तृणों का चमकना
धुंध नही देखी अबके वात नही देखा,
हिम नही देखी अबके हिमपात नही देखा...

सर्द थपेड़े खा, अपने में सिमटना,
कमरे में आ, कम्बल में लिपटना
चिमनी नहीं देखी , उठता धुआं नहीं देखा
आंच से नम होता तन का रुआं नहीं देखा,

क्रीडा दल का हिम पर फिसलना
इधर से जाना, उधर से निकलना
पर्वतों पर जम गया प्रपात नही देखा 
हिम नही देखी अबके हिमपात नही देखा...

ऊपरे खड़े हो नीचे का नजारा
वो झांकना नीचे लेकर सहारा
अपना सा हर मंज़र अनजान नही देखा
कुछ दूरी से गुजरता यान नहीं देखा,

झाडी के फूलों की मदमाती सी चहक
निशाचरों की गूंजती, चुभती सी चहक
मृगशावक का कम्पित कोमल गात नही देखा
हिम नही देखी अबके हिमपात नही देखा...

घाटी में कहीं दूर- झील में तरती तरणी
मनोरम सुबहें, सर्द नीरव शाम सुहानी
बाघ नहीं देखे अबके मृग नहीं देखे
खुलते मुंदते उनके कोमल दृग नहीं देखे
सिमटे जोड़ों को थामे एक दूजे का हाथ नहीं देखा
हिम नही देखी अबके हिमपात नही देखा...


Friday, 14 September 2012

बदलाव

अभी कल परसों की ही तो बात है
बगीचे में -
कलियाँ खिलती थीं
भीनी भीनी खुशबू से
आँगन महका करता था
हरे - भरे वृक्षों पर उगी
नई - नई कोंपलें देख
मन प्रफ्फुल्लित हो उठता था
उनकी छाया -
शीतलता देती थी
शाखों पर बैठे पक्षियों के
मिश्रित मधुर स्वर गूंजा करते थे
पर अचानक,
आज-
फूल, काँटों से चुभने लगे
खुशबू बदल गई -
उमस भरी हवाओं में
झड़ गई पत्तियां पेड़ों से
रह गई - सिर्फ सूखी टहनियां
धुप झुलसाने लगी -
जून की सी लू बनकर,
पंछियों का माधुर्य खो गया
उनके स्वर- कानों को कर्कश लगने लगे
अचानक सब कुछ - कितना बदल गया 


विरले

दीवानों की क्या हस्ती
करते फिरते मौज मस्ती
आसमाँ तक जाने वाले विरले हैं

बीच दरिया पड़े
खेलते रहते लहरों से
पार पाने वाले विरले हैं

मनमौजी मतवाले
सैंकड़ों भ्रम पाले
फिरते खानाबदोश से
रंगीनियों में मदहोश ही होंगे
आशियाँ बनाने वाले विरले हैं

परछाइयों के पीछे
भागते ऊपर नीचे
मद में जैसे चूर से
ठोकर खा बेहोश ही होंगे
पांवों पर चलने वाले विरले ही हैं 

Thursday, 13 September 2012

गुज़रे लम्हे

खींच रही हैं बाँहें
खुली हुई जंजीरे क्यूँ

थामती हैं दामन
गुजरी हुई बहारें क्यूँ

वो पल हैं आँखों मे
हल्के से धुंधलाये से

याद आते हैं वो लम्हे
जो भूल गये भुलाये से

एक दिन

एक दिन तूफाँ  सा आया
आँधियाँ  उठने लगी
तेज़ हवाएँ चलने लगी

यकीं था कि तुम
हवाओं का रुख मोड़ दोगे
आँधियों को थाम दोगे
तूफ़ान को रोक दोगे
मेरा हाथ थाम मुझे सहारा दोगे
गिर पड़ने पर
उठ खड़े होने की हिम्मत दोगे

पर तुमने
मुझे तूफाँ में भटकने को
बेसहारा बेसुध छोड़ दिया
आस थी की चले भी गये तो
कुछ दूर जाकर आवाज़ दोगे
सोचा था एक बार पलटकर देखोगे

पर देर हो गई शायद
अरसे बाद
तुमने हाथ बढ़ाया तो
मेरी हिम्मत टूट चुकी थी
तुमने पुकारा तो
सुन पाने की ताकत क्षीण हो चुकी थी
तुमने मुडकर देखा तो
धूल भरी हवाओं में
सब कुछ धुंधला सा गया था


Tuesday, 11 September 2012

साथ

एक राह दिखाई है मुझको
काले बादल ने जब भी घेरा है

दी है नई रौशनी तुमने
जब जब हुआ अँधेरा है

थामा  है हाथ मेरा जब जब
डर  ने किया बसेरा है

दी हैं खुशियाँ उस पल
जब ग़म ने डाला डेरा है



मुस्कुरा लें ज़रा

हँस लें आज
मुस्कुरा लें ज़रा

काँटों में खिलती हैं कलियाँ
फूलों के संग गा लें ज़रा

ग़म नहीं पी जायेगा घोलकर
प्याला लबों से हटा लें ज़रा

गिर पड़ें न लड़खड़ाकर
खुद को हम संभालें ज़रा

होने दो जो खफा हैं हमसे
दिल को आज मन लें ज़रा

आती है चांदनी कभी कभी
झूमकर आज गुनगुना लें ज़रा 

Monday, 10 September 2012

बरसात

ये क्या पूछ बैठे तुम कि
फिर घिर आई घनघोर घटा
आँखों में नमी अभी तक थी
कल परसों की बरसात की

झर झर आती हैं बूँदें
क्या इनकी कोई कहानी है
या दास्ताँ करती है बयाँ
अपने बेबस हालात की

सूखने लगता है जब जब
किनारों पर भरा हुआ पानी
निर्झर सी बहती आती है
मौज कोई जज़्बात की

निशाँ

हैं बीच अभी तक दरिया के
हम समझे थे उतर गए

वो जख्म अभी तक बाकी हैं
लगते थे जैसे भर गए  

हैं बादल अभी  अम्बर में 
हम समझे थे गुजर गये

हमराही बन साथ चलते हैं
जो राही थे बिछड़ गये

जुगनू से चमके आँखों में
जो ख्वाब कभी थे बिछड़ गये

Sunday, 9 September 2012

अफसाना

कुछ कहते कहते रुक जाना
कुछ चलते चलते कह जाना
ऐसा है दिल का अफसाना

बरबस यूँ ही रो पड़ना
फिर अनायास मुस्कुराना
ऐसा है दिल का अफसाना

बात को दिल से लगाना
कभी हँसी में उड़ा जाना
ऐसा है दिल का अफसाना

कहकर कुछ न कहना कभी
कभी ख़ामोशी से कह जाना
ऐसा है दिल का अफसाना 

धुंध

दिखती तो नही धुंध कहीं
क्यों ये साये धुंधलाये हैं

पतझड़ का नही ये मौसम
क्यों फूल पत्ते मुरझाये हैं

गूंजा नही घोंसलों में कलरव
जब महकती शीतल हवाएं हैं

नाचे नहीं मयूर जंगल में
जब नभ में बादल छाये हैं

गूंजी है आकाश में सरगम
दूर से ही सुन पाये हैं

सुनी नहीं जो तानें अब तक
लगता है भूल आये हैं 

Friday, 7 September 2012

पल...

आज है उजला-उजला
कल जाने किस रंग-रूप हो
खिली है चाँदनी
कल जाने फिर धूप  हो,
ज्यों पानी का बुलबुला-प्रति पल
पलक झपकते होता ओझल
जीवन की लहरों का
जाने क्या स्वरूप हो...   

छाया

छाया ढलती,
संग संग चलती

समझ इसे अपना
हम बढ़ते रहते

हमारी छाया
रूप और आकार बदल
सदा छलती

अँधेरे की आहट होते ही
साथ छोड़ चलती
हमारी छाया
कहने को अपनी...


Monday, 3 September 2012

आशीष से मोती

खड़ी है हाथ पसारे
वक़्त की राहों में,
काफिला निकल जाने की
बाट जोहती सी
आसमाँ के नीचे खड़ी
आँचल फैलाये कभी,
धरती पर क़दमों के
निशाँ खोजती सी
अदृश्य किसी धागे से
रेशमी डोर बांधती सी
मृगतृष्णा में बौराई
बदहवास भागती सी
खड़ी है हाथ पसारे
वक़्त की राहों में,
कि शायद कभी-
किसी डगर से गुज़रे,
और डाल दे हथेली पर-
आशीष से मोती।

तूफाँ सा आया था कभी

तूफाँ सा आया था कभी
कोहरा सा छाया था कभी

छंट गए  बादल
थम गई आंधी,

धुंध हट गई
काली रात कट गई
जिससे मन घबराया था कभी

बरसे हैं बादल फुहार बन
शीतल जलधार बहती है,

आने लगी है रोशनी
उन सभी राहों में
जहाँ अँधियारा छाया था कभी।


Saturday, 1 September 2012

न जाने क्यूँ ...

इन शिराओं में -
बहता था-  लहू बन
एक जज्बा कभी

आठों पहर हवाओं में
गूंजा करता था
एक नगमा कभी

पर आज -
न जाने क्यूँ -
थम सा गया कारवां
खामोश हुई सदाएं

सांसों में न थी रवानी जब
वक़्त जैसे उड़ता था पंख लगाये
हर लम्हा जैसे
सिमटा जा रहा था

आज-  बदली है जिंदगानी जब
वक़्त जैसे रुक गया है
गड्ढों में भरे - बारिश के पानी सा
ठहर गया है ...

कई बार...

कई बार ऐसा होता है
कुछ मोड़ ज़िन्दगी के
बनावटी से दिखते हैं

पर जब-
गुज़रना पड़ता है
इन्हीं राहों से,
तब एहसास होता है
की वाकई -
उनका भी
कोई स्वरूप है

सही,  सच्चा,
चिरस्थाई नहीं
पर हाँ -
कभी कभी
ज़िन्दगी के
किसी मोड़ पर,
कभी तो
एहसास दिलाते हैं -
अपने अस्तित्व का,
बनावटी से दिखते -
ये मोड़ ज़िन्दगी के...