मकड़ी के जालों सा
छोड़ने से छूट जाती
गर हर बात यहीं
तो क्या बात थी,
तोड़ने से टूट जाती
गर ये डोर यूं ही
तो क्या बात थी।
मकड़ी के जालों सा
चिपका है ये जाल
ज्यों इन दीवारों पर
तोड़े हैं कितनी बार
न जाने - ये धागे
बुन लेते हैं शिकंजा
मकड़ी के जालों सा
ज्यों इन दीवारों पर।
No comments:
Post a Comment