Saturday, 1 September 2012

न जाने क्यूँ ...

इन शिराओं में -
बहता था-  लहू बन
एक जज्बा कभी

आठों पहर हवाओं में
गूंजा करता था
एक नगमा कभी

पर आज -
न जाने क्यूँ -
थम सा गया कारवां
खामोश हुई सदाएं

सांसों में न थी रवानी जब
वक़्त जैसे उड़ता था पंख लगाये
हर लम्हा जैसे
सिमटा जा रहा था

आज-  बदली है जिंदगानी जब
वक़्त जैसे रुक गया है
गड्ढों में भरे - बारिश के पानी सा
ठहर गया है ...

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