Friday, 6 July 2012

मंजिल

कुछ दूर चल
कुछ दूर आगे बढ़
थोड़ा -सा पा लेने पर
थोड़ा -सा संजो लेने पर,
मंजिल पा लेने का
छलावा-सा होता है.

पर-
सहसा-
बिजली-सी कौंधती है,
आवाज़-सी आती है
क्षितिज ये नहीं
मंजिल ये नहीं..

फिर कुछ और आगे चल-
कुछ और आगे बढ़-
साहिल पर आ जाने का
 भ्रम-सा होता है.

पर फिर-
रह-रहकर 
एहसास होता है-
अनुभूति होती है-
अपरिमित ये अम्बर है.
क्षितिज तो भ्रम भर है.





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