मिटटी में दबे
असंख्य बीजांकुर
प्रस्फुटित हो
समय समय पर
अन्तराल में
आँखें खोल
अँगड़ाई ले उठते हैं,
वसुंधरा के अंक
भोर कनियों की मुस्कान पा
चम्पई हो जाते हैं,
सलिल संचार पा
विहार पवन हिंडोले
मंद मंद मुस्काते हैं,
ग्रीष्म से तापित
वृष्टि से सिंचित हो
हरे भरे हो जाते हैं,
मधुकर की गुंजार पा
मकरंद सुगंध बिखरते है..
असंख्य बीजांकुर
प्रस्फुटित हो
समय समय पर
अन्तराल में
आँखें खोल
अँगड़ाई ले उठते हैं,
वसुंधरा के अंक
भोर कनियों की मुस्कान पा
चम्पई हो जाते हैं,
सलिल संचार पा
विहार पवन हिंडोले
मंद मंद मुस्काते हैं,
ग्रीष्म से तापित
वृष्टि से सिंचित हो
हरे भरे हो जाते हैं,
मधुकर की गुंजार पा
मकरंद सुगंध बिखरते है..
कविता का सफ़र बीच में मत छोड़ दीजिये उसे मकसद तक पहुचाएं.
ReplyDeleteProtsahan me liye aabhar.....Ashu ji
ReplyDeleteProtsahan me liye aabhar.....Ashu ji
ReplyDeleteProtsahan ke liye aabhar.....Ashu ji
ReplyDeleteProtsahan ke liye aabhar.....Ashu ji
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