Wednesday, 11 July 2012

अंकुर

मिटटी में दबे
असंख्य बीजांकुर
प्रस्फुटित हो
समय समय पर
अन्तराल में
आँखें खोल
अँगड़ाई ले उठते हैं,

वसुंधरा के अंक
भोर कनियों की मुस्कान पा
चम्पई हो जाते हैं,

सलिल संचार पा
विहार पवन हिंडोले
मंद मंद मुस्काते हैं,

ग्रीष्म से तापित
वृष्टि से सिंचित हो
हरे भरे हो जाते हैं,

मधुकर की गुंजार पा
मकरंद सुगंध बिखरते है..

5 comments:

  1. कविता का सफ़र बीच में मत छोड़ दीजिये उसे मकसद तक पहुचाएं.

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  2. Protsahan me liye aabhar.....Ashu ji

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  3. Protsahan me liye aabhar.....Ashu ji

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  4. Protsahan ke liye aabhar.....Ashu ji

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  5. Protsahan ke liye aabhar.....Ashu ji

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